मात्र अभियान नहीं, आदत बने सफाई -- डा. विनोद बब्बर

हमारी संस्कृति में ईश्वर की उपासना से पूर्व अपने परिवेश की स्वच्छता और शुद्धता का विशेष महत्व है। हमारे शास्त्रों में ‘शौच’ (शरीर ही नहीं, मन की शुद्धता) की चर्चा है। शरीर की शुद्धता जल से, म और बुद्धि की शुद्धता सद्विचार, सत्य, ज्ञान की संगति से ही संभव है। श्रीमद्भागवत गीता के सोलहवे अध्याय में बाह्य परिवेश से अन्तर्मन की शुद्धता का उल्लेख है। इतना ही नहीं भारतीय जीवन दर्शन तो जीवन के बाद भी स्वच्छता का पक्षधर है। यहां तो शव को भी स्नान कराने के पश्चात ही अन्त्येष्टि की जाती है।
दुनिया की हर प्राचीन सभ्यता का मूल्यांकन इस बात से होता रहा है कि वहाँ जनजीवन कैसा था। नगर योजना कैसी थी। सफाई की व्यवस्था का स्तर क्या था। आज भी हम किसी व्यक्ति अथवा समाज के स्तर की जानकारी  स्वच्छता के प्रति प्रति उसके दृष्टिकोण और व्यवहार से लगाते हैं। कोई भी व्यक्ति कितना भी साधनहीन क्यों न हो उसे भी कूड़े का ढ़ेर चुभता है। गंदगी से सने कीमती धातु के पात्र की बजाय स्वच्छ शुद्ध पतल को प्रसाद के लिए प्राथमिकता दी जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि स्वच्छता और जागरूकता रहित न तो कोई धर्म हो सकता है और न ही कोई सभ्य समाज। महात्मा गांधी ने भी कहा था, ‘स्वच्छता आजादी से महत्वपूर्ण है।’
आश्चर्य है कि जिस देश में स्वच्छता चाहे वह व्यक्तिगत  अथवा सामुदायिक उच्च मापदंड़ों से कैसे दूर हो गई। यह बेहद शर्मनाक है कि आज हमारी पहचान गंदगी के ढ़ेर तले दबकर रह गई है। जब हम पश्चिमी देशों की साफ-सफाई से स्वयं की तुलना करते हैं तो बेहद ग्लानि होती है। हर सुबह पूरे देश में रेल की पटरियों के दोनो ओर दृश्य किसी भी विदेशी के सामने सिर झुकाने के लिए काफी है। सजे-धजे अति आधुनिक हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही कूड़े-कचरे के ढेर स्वागत करते नजर आते हैं। इतना ही नहीं  प्रतिदिन करोड़ों का व्यवसाय करने वाले  मॉल्स और बाजार,  सड़क हो या गली-कूचा, बस स्टैंड हो या रेलवे-स्टेशन, धार्मिक स्थल हो या श्मशान, कब्रिस्तान, गंदगी का निरंकुश साम्राज्य हर स्थान पर फलता-फूलता नजर आता है।
वैसे यह जानना दिलचस्प होगा कि  अठारहवीं शताब्दी तक यूरोप और अमरीका में भी बहुत अधिक गंदगी  रहती थी। वहाँ के धर्माचार्यो ने गंदगी की तुलना पाप से करते हुए सभी को साफ सफाई के लिए प्रेरित किया। सभी को समझ में आ गया कि ‘स्वच्छता ईश्वरीय गुण है। यह उतना ही ज़रूरी है जितना दान,  पुण्य, धर्म प्रचार, पूजा, उपासना।’ इसके बाद पूरे यूरोप में हुए क्रांतिकारी परिर्वतन के प्रभाव और परिणाम के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। सभी जानते हैं, आज भी लोग चर्च में रविवार को ‘सर्विस’ के लिए आते हैं। लेकिन हमारे पूजा-स्थल पर तेज आवाज में संकीर्तन, आरती, नमाज,तो खूब सुनाई देती है पर  ‘सेवा’ नदारद है। हाँ, गुरुद्वारों में जरूर यदा-कदा ‘कारसेवा’ होती है जब सभी बिना किसी भेदभाव के  सफाई से निर्माण कार्य में सशरीर जुटते हैं। वैसे हमारे वर्तमान दूरदर्शनी धर्माचार्यों का मौन जरूर खलता है। बड़े- बड़े पंडालों में सप्ताह भर हजारों लोगों को धर्मचर्चा के साथ यदि प्रतिदिन एक घंटा किसी मलीन बस्ती में सेवा के लिए प्रेरित किया जाता तो सफाई के मामले में भी हम न पिछड़ते। काश हम धार्मिकता को केवल कर्मकांड और घंटे-घडिल, ढोलक, मजीरे बजाने तक ही सीमित न करते। काश हमारी  धार्मिकता हमारे दैनिक व्यवहार से  हमारे स्वच्छ परिवेश में भी झलकती!
इन दिनों सफाई अभियान की चर्चा है। स्वयं प्रधानमंत्री जी ने एक मलीन बस्ती में अपने हाथों सफाई कर इस अभियान का श्रीगणेश किया। दिल्ली सहित सारे देश में करोड़ों लोग इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। स्कूल -कालेजों में भी यह अभियान चलाया जा रहा है। मंत्री से संत्री तक सभी ‘सफाई अभियान’ में लगे दिखाई दे रहे है। इस अभियान का एक महत्वपूर्ण कर्मकांड है वह शपथ जिसके अनुसार, ‘मैं न गंदगी करुंगा न किसी को करने दूंगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, अपने परिवार से, अपने मोहल्ले से, अपने गांव से और अपने कार्यस्थल से शुरुआत करूंगा। मैं यह मानता हूँ कि दुनिया में जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं, उसका कारण यह है कि वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं।’
एक स्वस्थ राष्ट्र निर्माण में स्वच्छता की महती भूमिका है अतः सेसे अभियान मात्र-शुरुआत हैं, अंतिम लक्ष्य नहीं। स्वच्छता और स्वास्थ्य का संबंध अनन्य है।  यदि हमारेे वातारण में गंदगी है तो रोग  फैलाने वाले विषाणु और कीट  पनपते हैं। रोग के उपचार पर धन बर्बाद करने और कष्ट सहने की बजाय साफ-सफाई  हमारी आदत बननी चाहिए। लेकिन जब शपथ उन नेताओं के द्वारा दिलाई जा रही जो बार-बार पद और गोपनीयता की शपथ लेकर भी उसका ईमानदारी से पालन नहीं कर पाते हैं तो उसके परिणामों पर संदेह होना स्वाभाविक है। यह आवश्यक है कि सार्वजनिक सफाई बच्चों के पाठ्यक्रम को व्यवहारिक हिस्सा बने। गुजरात विद्यापीठ में अपने एक सप्ताह के प्रवास के दौरान मैंने वहां के छात्रों को झाडू उठाए सफाई करते देखा। छोटे से बड़े, सभी छात्र इस काम में जुटते हैं। एक सुबह शौचालय की सफाई कर रहे एमफिल के एक छात्र को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि आजकल पर्ढ़-लिखे होने का एकमात्र अर्थ दूसरों पर हुक्म चलाना और स्वयं  ‘कुछ भी न करना’ हो रहा है। वहां के छात्र होस्टल में रहते हुए भोजन के बाद अपने बर्तन स्वयं धोते हैं, कपड़े भी स्वयं। यहां रहते हुए हमें भी अपने बर्तन स्वयं साफ करने पड़े लेकिन मुझे रत्ती भर भी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि मैं अकेला हूँ और अपने सभी कार्य स्वयं ही करता हूँ लेकिन मेरे कुछ साथी व्यवस्था की आलोचना करते नजर आए।
 हर स्तर पर सफाई अभियान हर दिन चलना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ नेताओं और बड़े अफसरों का फोटो खिचवाई अभियान नहीं होना चाहिए जो उल्टा या सीधा जैसा भी पकड़ पाएं झाड़ू पकड़े, फोटो खिंचवाई और यह सुनिश्चित किया कि उनका चित्र अगली सुबह सभी अखबारों में न्यूज के साथ छपना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ तथ्यों पर सरकार को विचार करना चाहिए  कि लोग सड़क किनारे अपनी ‘शंकाएं’ त्यागने को विवश क्यों है? पुरुष  तो जैसे तैसे निपट लेते हैं लेकिन महिलों की स्थिति बहुत खराब है। वे बेचारी  कहां जाए? सफाई अभियान की योजना में इस पर चुप्पी क्यों?
क्या दैनिक सफाई का कार्य दिन की बजाय रात्रि में नहीं होना चाहिए? दुनिया के अनेक देशों में ऐसा होता है तो भारत में क्यों नहीं? सुबह जब हर गली-सड़क पर भीड़ होती है। सभी अपने काम पर जाने की जल्दी में होते हैं सफाई कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। अनेक स्थानों पर कूड़ा हफ्तों सड़ता रहता है। इसके निपटान की जिम्मेवारी तय होनी चाहिए। लापरवाही पर दंड का प्रावधान हो। घर के कूलर में एक भी मच्छर मिलने पर भारी भरकम जुर्माना होता है तो घर के सामने की नालियों में मच्छरों की फौज होने पर आखिर  किसी को तो दोषी माना जाना चाहिए? किसी पर तो जुर्माना होना चाहिए। क्या नागरिक चार्टर के बिना ऐसे अभियानों का कोई स्थाई प्रभाव हो सकता है?
हमारा मत है कि स्वच्छता एक अभियान नहीं,  हमारा स्वभाव होना चाहिए। यह उचित नहीं कि हम अपने परिवेश को साफ रखने पर घंटों भाषण देते हुए मुंह में गुटखा, पान, तम्बाकू चबाते और पीक थूकते रहे और सरकार को कोसते रहे। अपने घर में सफाई रखे लेकिन घर का कूड़ा नाली में, पड़ोसियों के दरवाजे अथवा गली के मुहाने पर चुपके से रखने वाले सभ्य नहीं हो सकते हैं। ऐसे में उनके धार्मिक होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पुण्य से अधिक यश की कामना के लिए सड़कों के किनारे भंडारे करने वालों को इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि भंडारा प्रसाद वितरण के बाद  गंदगी, झूठेे पत्तलों का ढ़ेर उनके तमाम पुण्यकर्माें को नष्ट करने के लिए काफी है। सफाई के प्रदर्शन से हजार दर्जे श्रेष्ठ है गंदगी न करने का मानस बनाना, निधार्रित  स्थान पर ही कचरा डालने की आदत डालना। हम स्वयं को सभ्य और ज़िम्मेवार नागरिक मानते हैं तो यह कार्य बहुत आसान है।
और अंत में चर्चा देहरादून में ‘वेस्ट वॉरियर्स’ (कचरे के योद्धा) की। इस स्वयंसेवी संगठन के सदस्य धार्मिक स्थलों के बाहर हाथों में  थैले लिए तैनात रहते हैं। वहाँ  आने वाले लोग जो चीज भी इधर-उधर फेंकते हैं उसे लोग उसे एकत्र कर कूड़ेदान में डालते हैं। इस संस्था की संस्थापक के अनुसार, ‘सार्वजनिक स्थानों पर कचरे का अंबार देखकर अकेले ही क चरा इकट्ठा करना शुरू किया। बाद में समविचार अनेक लोग इसमें जुड़ गए हैं।’ इस प्रसंग की चर्चा इसलिए ताकि भविष्य में सफाई से ‘परहेज’ करते हुए इतना अवश्य जाने ले कि ‘वेस्ट वॉरियर्स’ की संस्थापिका एक विदेशी महिला है लेकिन हम इसी देश के नागरिक होते हुए भी.....! हम भी कहाँ याद रखना चाहते हैं कि कभी भगवान श्रीकृष्ण ने एक यज्ञ में स्वयं झूठे पत्तल उठाने की जिम्मेवारी ली थी। जो लोग सफाई को ‘छोटा’ कार्य मानते है उन्हीं के कृत्यों के कारण ही  हमने अपने स्वयं को दुनिया की नजरों में ही नहीं स्वयं की नजरों में भी ‘छोटा’ और ‘गंदा’ बना लिया है। सम्पर्क-  09868211911)
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